बल्कि अब तो यह हो गया है कि खाकसार पहले यही पूछ लेता है ऑटो वाले से कि भाई साहब कहाँ जा रहे हैं ? अगर कहीं रास्ते में हमारी मंजिल आती हो, तो हमें भी डाल लीजिये अपने साथ ।
खैर मामला यह नहीं था । मामला था ऑटो के पीछे लिखे ज्ञान संदेशों का । एक ऑटो के पीछे लिखा था- दोस्ती पक्की, पर खर्चा अपना-अपना । यह ऑटो वाला इधर के इंटरनेश्नल घटनाक्रम से वाकिफ नहीं लगता । अमेरिका और पाकिस्तान में दोस्ती पक्की, पर सारा खर्चा अमेरिका का- यह मॉडल उभर रहा है । पक्की दोस्तीयाँ टिकती ही इसी आधार पर हैं कि एक पूरा खर्चा उठाने को तैयार हो । खर्चा अपना- अपना ही करना है, तो दोस्ती की ज़रूरत ही क्या है । पाकिस्तान से बेहतर यह बात कौन समझ सकता है ।
एक ऑटो के पीछे लिखा था- दुश्मनों से निपट लेंगे, दोस्तों से बचकर रहो । लगता है कि हाल में किसी पालिटिकल पार्टी के टिकट से चुनाव लड़कर हार गया है । दुश्मन ने तो एक बार ही हराया । बाकी पुराने गठबंधन वाली पार्टी के पुराने दोस्त रोज़ चिढाने लगते हैं, हालत एकदम लालूजी और पासवानजी वाली हो गई लगती है । पुराने दोस्तों से निपटना मुश्किल होता है । लालूजी और पासवानजी से ज्यादा बेहतर इस बात को और कौन समझ सकता है ?
एक ऑटो के पीछे लिखा था- मालिक की गाड़ी, ड्राईवर का पसीना, दौडती है सड़क पर, बन कर हसीना । पता नहीं, इस शेर का हसीनाओं ने बुरा क्यों नहीं माना । हरी, पीली, काली, एक सी परमानेंट सज-धज में इधर से उधर दौड़ने वाले ऑटो को हसीना कहने पर भी वह बुरा नहीं मान रहीं हैं । इसका मतलब वह ऑटो वाले से झगडा मोल नहीं लेना चाहतीं । मैंने भी ऑटो वाले से झगडा करना छोड़ दिया है ।
चलूँ, एक ऑटो वाले से पुछू जहाँ वह जा रहा है, मुझे भी वहीं जाना है, क्या वह मुझे ले चलेगा ?
लेखक- आलोक पुराणिक
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